“नकारा पीढ़ी और बदलते संस्कारों का परिणाम-वृद्धाश्रम: नवीन भारतीय संस्कृति का दर्पण–संजय राणा
भारतीय संस्कृति की नींव जिन मूल्यों और संस्कारों पर टिकी थी, उनमें परिवार, सेवा, और बड़ों का सम्मान सर्वोपरि रहा है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” जैसी अवधारणाओं ने हमारी सामाजिक संरचना को गहराई दी थी।

भारतीय संस्कृति की नींव जिन मूल्यों और संस्कारों पर टिकी थी, उनमें परिवार, सेवा, और बड़ों का सम्मान सर्वोपरि रहा है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” जैसी अवधारणाओं ने हमारी सामाजिक संरचना को गहराई दी थी। परंतु आज के भारत में जब हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या पर नजर डालते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या यह सामाजिक आवश्यकता है, या हमारी सांस्कृतिक विफलता का प्रमाण?
इस लेख में हम इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने का प्रयास करेंगे कि वृद्धाश्रम की आवश्यकता क्यों बढ़ रही है और इसमें हमारे संस्कार कितने दोषी हैं।
बदलती सामाजिक संरचना और वृद्धाश्रम की आवश्यकता

वृद्धाश्रम पहले एक अपवाद थे, अब वह सामान्य होते जा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण है बदलती सामाजिक संरचना। पहले संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों को आदर, संरक्षण और भावनात्मक सहारा मिलता था, लेकिन अब एकल परिवारों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई है। नौकरी, व्यवसाय या शिक्षा के सिलसिले में जब संतानें दूर शहरों या विदेशों में बसती हैं, तो माता-पिता अकेले रह जाते हैं।
बहुत से वृद्धजन आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होते। कुछ को स्वास्थ्य कारणों से विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है, जो हर परिवार के लिए संभव नहीं। ऐसे में वृद्धाश्रम एक विकल्प के रूप में उभरते हैं, जहाँ उन्हें देखभाल, भोजन, सुरक्षा और कभी-कभी साथीपन भी मिल जाता है।
संस्कार: दोष या दिशा?
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारी संस्कृति और संस्कार वृद्धाश्रमों की इस आवश्यकता के लिए उत्तरदायी हैं?
*वास्तव में, संस्कारों का मूल उद्देश्य था — कर्तव्यबोध, सेवा, त्याग और बड़ों के प्रति श्रद्धा का विकास। परंतु आज यही संस्कार या तो केवल औपचारिकता बन कर रह गए हैं, या फिर उन्हें आधुनिकता की दौड़ में “पुरानी बातें” मानकर छोड़ दिया गया है।
*बचपन में बच्चों को जो संस्कार दिए जाते हैं, वही बड़े होकर उनके व्यवहार का रूप लेते हैं। यदि परिवार में माता-पिता याr समाज केवल सफलता, स्वतंत्रता और भौतिक प्रगति को जीवन का लक्ष्य बताएंगे, तो बच्चे बड़ों के प्रति कर्तव्य को बोझ मानने लगते हैं।
यह कहना उचित होगा कि संस्कार स्वयं दोषी नहीं हैं, बल्कि उन्हें निभाने और समझाने की प्रक्रिया में कमी आई है।
आधुनिकता बनाम परंपरा: संघर्ष या समन्वय?
आज की पीढ़ी “स्पेस”, “प्राइवेसी”, और “फ्रीडम” जैसे विचारों को लेकर इतनी व्यस्त है कि संयुक्तता और सेवा जैसे शब्द उसे पुराने जमाने के प्रतीक लगते हैं। तकनीकी प्रगति ने भले ही दुनिया को जोड़ा है, लेकिन परिवारों के बीच संवाद की खाई गहरी कर दी है।
संस्कारों को आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक बनाए बिना हम उन्हें अगली पीढ़ी तक नहीं पहुंचा सकते। यदि संस्कारों को केवल परंपरा समझकर छोड़ दिया गया, तो वे दिशाहीनता का कारण बनेंगे।
समाज और प्रशासन की भूमिका:
समाज में यदि वृद्धजन उपेक्षित हो रहे हैं, तो यह केवल परिवार की नहीं, पूरे समाज और प्रशासन की सामूहिक विफलता है। सरकार द्वारा संचालित वृद्धाश्रमों की संख्या सीमित है और जो हैं भी, उनमें सुविधाओं की भारी कमी देखी जाती है। दूसरी ओर, समाज में ऐसे बहुत से संगठन और लोग हैं जो वृद्धों की सेवा के लिए कार्यरत हैं। लेकिन यह प्रयास व्यापक और स्थायी नहीं हैं। यदि समाज में वृद्धों को आदर, भूमिका और भागीदारी मिले, तो वृद्धाश्रमों की आवश्यकता स्वतः कम हो सकती है।
समाधान की दिशा में सोच:
*संस्कारों को व्यवहारिक बनाना होगा — बच्चों को परिवार के भीतर सेवा और स्नेह के मूल्य सिखाने होंगे, केवल उपदेश देने से बात नहीं बनेगी।
*संयुक्तता के नए स्वरूप — भले ही हम एक छत के नीचे न रहें, लेकिन डिजिटल युग में संवाद और सहारा बनाए रखना अब संभव है।
*समाज को जागरूक करना — सामाजिक संगठनों, विद्यालयों और मीडिया को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे वृद्धों के प्रति संवेदनशीलता को फिर से जीवित करें।
*प्रशासनिक प्रयासों में सुधार — वृद्धों की देखभाल हेतु सरकारी योजनाओं का उचित क्रियान्वयन और वृद्धाश्रमों का सतत निरीक्षण अनिवार्य है।
वृद्धाश्रमों की बढ़ती उपस्थिति यह दर्शाती है कि भारत अब एक सांस्कृतिक संक्रमणकाल से गुजर रहा है। यह न तो पूरी तरह परंपरा में है, न ही पूरी तरह आधुनिक। ऐसे समय में हमें यह समझना होगा कि संस्कारों को केवल संग्रहालय में रखने से समाज का भला नहीं होगा। उन्हें समय के अनुसार ढालते हुए, जीवन में आत्मसात करना होगा।
संस्कार दोषी नहीं हैं — हम दोषी हैं, जिन्होंने उन्हें निभाना बंद कर दिया।
अगर आज हम अपने बुजुर्गों को घर में स्थान नहीं दे पा रहे, तो कल हमें भी कोई घर नहीं देगा।









