संपादकीय

संपादकीय : चीन से संबंध ‘पिछली ताहि बिसारि के आगे की सुधि लेहु’ की नीति पर चलने का वक्त

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात साल बाद चीन दौरे पर पहुंच गए हैं। चीन में पीएम मोदी एससीओ शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेंगे। चीन में पीएम मोदी की चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ बैठकें भी करेंगे। अमेरिका से टैरिफ विवाद के बीच पीएम मोदी का चीन दौरा हो रहा है और इसे दोनों देशों के संबंधों के लिहाज से अहम माना जा रहा है। नरेंद्र मोदी का चीन के तियानजिन स्थित होटल में प्रवासी भारतीयों ने स्वागत किया। उन्होंने भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए।


इस यात्रा पर पूरी दुनिया की नजर है। दुनिया बेहद उत्सुकता से पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात का इंतजार कर रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीतियों की वजह से भारत-अमेरिका संबंधों में अचानक आई गिरावट को देखते हुए यह यात्रा और भी महत्वपूर्ण हो गई है। पीएम मोदी मोदी मुख्य रूप से 31 अगस्त और 1 सितंबर को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के वार्षिक शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन आए हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी निर्धारित बैठक वाशिंगटन के टैरिफ विवाद के मद्देनजर और भी महत्वपूर्ण हो गई है, जिसका असर दुनिया भर की लगभग सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा है। इस वार्ता में पीएम मोदी और शी भारत-चीन आर्थिक संबंधों का जायजा लेने और पूर्वी लद्दाख सीमा विवाद के बाद गंभीर तनाव में आए संबंधों को और सामान्य बनाने के लिए कदमों पर विचार-विमर्श करेंगे।


पीएम मोदी शिखर सम्मेलन से इतर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और कई अन्य नेताओं के साथ द्विपक्षीय वार्ता भी कर सकते हैं। तियानजिन की अपनी यात्रा से पहले पीएम मोदी ने कहा कि विश्व आर्थिक व्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए भारत और चीन का मिलकर काम करना जरूरी है। जापान के योमिउरी शिंबुन को दिए एक साक्षात्कार में पीएम मोदी ने कहा कि भारत और चीन के बीच स्थिर पूर्वानुमानित और सौहार्दपूर्ण द्विपक्षीय संबंध क्षेत्रीय और वैश्विक शांति एवं समृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।


आइए थोड़ा पीछे चलते हैं। भारत-चीन युद्ध जो भारत चीन सीमा विवाद के रूप में जाना जाता है, चीन और भारत के बीच 1962 में हुआ था। विवादित हिमालय सीमा युद्ध के लिए एक मुख्य बहाना था, लेकिन अन्य मुद्दों ने भी भूमिका निभाई। चीन में 1959 के तिब्बती विद्रोह के बाद जब भारत ने दलाई लामा को शरण दी तो भारत चीन सीमा पर हिंसक घटनाएं शुरू हो गयीं। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान, अरुणाचल प्रदेश के आधे से भी ज़्यादा हिस्से पर चीनी पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने अस्थायी रूप से कब्जा कर लिया था उस वक़्त। फिर चीन ने एकतरफ़ा युद्ध विराम घोषित कर दिया और उसकी सेना मैकमहोन रेखा के पीछे लौट गई। उस वक्त भारत को अंग्रेजों के शासन से मुक्त हुए केवल 15 साल हुए थे। भारत स्वयं को अभी संभाल ही रहा था कि चीन से युद्ध करना पड़ गया।

यह तो सच है कि अब भारत न तो 1962 का भारत है और न चीन ही। देखा जाए तो दोनों को एक दूसरे की जरूरत भी है और वक्त का तकाजा भी। तबसे अब तक भारत भी काफी मजबूत हुआ है, आत्मनिर्भर हुआ है और चीन भी। कभी नारे लगते थे कि हिन्दी-चीनी भाई-भाई लेकिन जब युद्ध हुआ तो सब हैरान थे। अब दोनों देश महाशक्ति के रूप में देखे जाते हैं। ऐसे में वक्त का तकाजा है कि दोनों देश पिछली बातों को भूलकर एक दूसरे से कंधा मिलाकर साथ चलें। इससे न केवल नए वैश्विक प्रतिमान बनेंगे अपितु दोनों देश विकास के नए कीर्तिमान भी गढ़ेंगे।


पिछले कुछ महीनों में भारत और चीन ने अपने संबंधों को फिर से स्थापित करने के लिए कई कदम उठाए हैं, जो जून 2020 में गलवां घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हुई घातक झड़पों के बाद गंभीर तनाव में आ गए थे। प्रधानमंत्री ने आखिरी बार जून 2018 में एससीओ शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन का दौरा किया था। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अक्तूबर 2019 में दूसरे अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के लिए भारत का दौरा किया था। पिछले साल 21 अक्तूबर को हुए एक समझौते के तहत डेमचोक और देपसांग के अंतिम दो टकराव बिंदुओं से सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया पूरी होने के बाद पूर्वी लद्दाख में गतिरोध प्रभावी रूप से समाप्त हो गया था। प्रधानमंत्री मोदी इस बात पर बल देते आए हैं कि यह युद्ध का नहीं अपितु एक दूसरे से वार्ता पर बैठकर आपसी मुद्दों को सुलझाने का वक्त है। इस दौरे से उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों देश अब आपसी समझ से आगे बढ़ेंगे। पहल हो चुकी है, बस परिणाम आने की देर है।

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